✍️करिश्मा शाह

एक छात्र नेता के रूप में बांग्लादेश की राजनीति में कदम रखने वाली बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना आज स्वयं छात्र राजनीति और आंदोलन का शिकार हो गई हैं। बांग्लादेश में आरक्षण को लेकर शुरू हुए विवाद ने लाखों छात्रों और अवाम को सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिया था। यह विवाद असल में देश के स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार को सरकारी नौकरियों में दिए जाने वाले 30 प्रतिशत आरक्षण की कोटा प्रणाली को लेकर था। विवाद बढ़ता गया और देश में उग्र रूप अख़्तियार कर लिया। नतीजा यह हुआ कि शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा और बांग्लादेश को एक बार फिर से सैन्य तख्तापलट के लिए तैयार होना पड़ा।

हालाँकि, बांग्लादेश में सैन्य तख्तापलट हो जाना कोई पहली राजनीतिक उथल-पुथल नहीं है बल्कि इसका एक लंबा जटिल इतिहास रहा है। गौरतलब है कि देश की राजनीतिक दिशा को प्रभावित करने के लिए बांग्लादेश में कई बार सैन्य हस्तक्षेप हुए हैं। 1971 में बांग्लादेश की स्थापना के बाद 1975 वह साल था जब देश ने तीन तख्तापलट देखे। पहला सैन्य तख्तापलट 15 अगस्त 1975 को तब हुआ था, जब बांग्लादेश के संस्थापक और पहले राष्ट्रपति, ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर्रहमान, और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। इन्हीं की बेटी शेख हसीना हैं। बांग्लादेश में इस पहले तख्तापलट को कुछ सेना अधिकारियों द्वारा अंजाम दिया गया था। इस घटना के बाद खंदकर मुश्ताक अहमद ने राष्ट्रपति पद संभाला। इसी साल 3 नवंबर में दूसरा तख्तापलट हुआ, जिसमें खंदकर मुश्ताक अहमद को पद से हटा दिया गया और ब्रिगेडियर जनरल खालिद मोशर्रफ ने सत्ता संभाली। इसी नवंबर की सात तारीख को ही जनरल ज़ियाउर रहमान ने एक और तख्तापलट किया और खुद को सत्ता में स्थापित किया। 1977 में इन्होंने बांग्लादेश के राष्ट्रपति पद को संभाला और सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत किया। लेकिन, तख्तापलट से सत्ता में काबिज होने वाले ज़ियाउर रहमान खुद इसका शिकार तब हुए जब 30 मई 1981 को चिटगांव में एक असफल तख्तापलट के दौरान उनकी हत्या कर दी गई थी।

इसके एक साल बाद ही सेना प्रमुख जनरल हुसैन मोहम्मद इरशाद ने राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार को अपदस्थ किया और खुद को प्रमुख मार्शल लॉ प्रशासक घोषित किया। इरशाद ने 1983 में राष्ट्रपति पद संभाला और 1990 तक सत्ता में रहे, जब जन आंदोलन के बाद उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा। इस जनांदोलन में भी अहम भूमिका छात्रों की ही थी, जो इस बात का द्योतक है कि युवावर्ग जब असंतुष्ट होता है तो देश में बड़े से बड़ा राजनीतिक भूचाल ला सकता है। इस जनांदोलन के परिणामस्वरूप बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली हुई। इसके बाद 1991 में देश में पहले लोकतांत्रिक चुनाव हुए जिसमें कुल 73 पार्टियों ने हिस्सा लिया था। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) की सरकार बनी और खालिदा जिया ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

इसके बाद 1996 में बांग्लादेश में स्वतंत्र चुनाव हुए तो ‘अवामी लीग’ जीती और इसी पार्टी से जुड़ी शेख हसीना ने प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार बांग्लादेश की सत्ता को संभाला। हालांकि, 2001 में हुए चुनावों में शेख हसीना को हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन, साल 2009 में वह फिर से सत्ता में आईं और तब से लेकर वर्तमान तख्तापलट तक लगातार उनकी ही सरकार बांग्लादेश में रही।

बांग्लादेश में हुए इन तख्तापलटों से यह बात स्पष्ट है कि इसने बांग्लादेश में कई तरह के राजनीतिक बदलावों को जन्म दिया। इसमें सबसे अहम देश में लोकतंत्र के दौर का शुरू होना है। लेकिन, इस बात से भी नकारा नहीं जा सकता है कि तख्तापलट कई दफा राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता में सेना अनावश्यक हस्तक्षेप को भी जन्म देते हैं। इससे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2021 में म्यांमार में हुआ सैन्य तख्तापलट है जिसने देश को बमुश्किल से मिले लोकतान्त्रिक अधिकारों से वंचित कर दिया। हालाँकि, बांग्लादेश के संदर्भ में देखना यह होगा कि हालिया तख्तापलट के बाद यहाँ की राजनीति कौन-सा रुख अख़्तियार करती है और यहाँ किसका शासन होता है, एवं भारत के साथ इसके द्विपक्षीय रिश्ते किस दिशा में मोड़ लेते हैं?